Bhaktamar Stotra Sanskrit PDF – भक्तामर स्तोत्र संस्कृत PDF

भक्तामर स्तोत्र( Bhaktamar Stotra Sanskrit PDF) जैन धर्म का एक प्रसिद्ध स्तोत्र है। जो कि आचार्य मातुंग द्वारा इस स्तोत्र का रचना किया गया है । यह स्तोत्र मुख्यतः (Sanskrit) में लिखा गया था। लेकिन अब इसका अनेक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है।

यह स्तोत्र प्राचीन और उत्कृष्ट संस्कृत कविता के रूप में जानी जाती है। इसका मुख्य उद्देश्य जैन भगवान आदिनाथ की प्रशंसा करना है और उनके गुणों का वर्णन करना है।

Bhaktamar Stotra in Sanskrit PDF

भक्तामर स्तोत्र में 48 श्लोक होते हैं, जो आध्यात्मिक संदेश और शांति का सन्देश देते हैं। यह स्तोत्र सुनने और पढ़ने से श्रद्धालु व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक शांति प्राप्त होती है।

उस समय क्रोध की अग्नि में जल रहे राजा नृपति ने आचार्य मानतुंग को बलपूर्वक पकड़कर 48 तालों में बंद करवा दिया था।

उस समय धर्म की रक्षा के लिए आचार्य श्री ने भगवान आदिनाथ की इस स्तुति का निर्माण किया था, जिससे हर श्लोक के साथ 48 ताले स्वयं टूट गए और राजा ने क्षमा मांगकर उनके प्रति विशेष भक्ति प्रकट की।

भक्तामर को प्रतिदिन पाठ करने से सभी बाधाएँ दूर होती हैं और सब प्रकार का मंगल माना जाता है। इसके प्रत्येक श्लोक को मंत्र मानकर भी पूजा जाता है।

Bhaktamar Stotra Sanskrit PDF :

भक्तामर प्रणत मौलि मणि प्रभाणा
मुद्योतकं दलित पाप तमो वितानम् ।
सम्यक्-प्रणम्य जिन पपाद युगं युगादा
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ।।1।।

य: संस्तुत: सकल वां मयतत्त्व बोधा
दुद्भूत-बुद्धि पटुभि: सुर लोकनाथै: ।
स्तोत्रैर्जगत् त्रितय चित्त हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥

बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित पाद पीठ!
स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगत त्रपोऽहम् ।
बालं विहाय जलसंस्थित मिन्दु बिम्ब
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥

वक्तुं गुणान्गुण समुद्र ! शशांक कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुरगुरु प्रतिमोपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त काल पवनोद्धत नक्र चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥4॥

सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत शक्ति रपि प्रवृत्त: ।
प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज शिशो: परिपालनार्थम् ॥5॥

अल्प-श्रुतं श्रुतवतां परिहास धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु: ॥6॥

त्वत्संस्तवेन भव सन्तति सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त लोकमलि नील मशेष माशु,
सूर्यांशु भिन्न एल मिव शार्वर मन्धकारम् ॥7॥

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद,-
मारभ्यते तनु धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता फल द्युति मुपैति ननूद बिन्दु: ॥8॥

आस्तां तव स्तवन मस्त समस्त दोषं,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि ॥9॥

नात्यद्भुतं भुवन भूषण ! भूूतनाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त मभिष्टुवन्त: ।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥

दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष-विलोकनीयं,
नान्यत्र तोष मुपयाति जनस्य चक्षु: ।
पीत्वा पय: शशिकर द्युति दुग्ध सिन्धो:,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥11॥

यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान मपरं न हि रूप मस्ति ॥12॥

वक्त्रं क्व ते सुर नरोरग नेत्र हारि,
नि:शेष निर्जित जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलंक मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ॥13॥

सम्पूर्ण मण्डल शशांक कला कलाप
शुभ्रा गुणास् त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ।
ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वरनाथ मेकं,
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥14॥

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांग नाभिर्
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पान्त काल मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥

निर्धूम वर्ति रपवर्जित तैल पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय मिदं प्रकटीकरोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥16॥

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्-जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर निरुद्ध महाप्रभाव ,
सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र लोके ॥17॥

नित्योदयं दलित मोह महान्धकारं,
गम्यं न राहु वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज मनल्पकान्ति,
विद्योतयज् जगदपूर्व शशांक बिम्बम् ॥18॥

किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तम:सु नाथ!
निष्पन्न शालिवन शालिनी जीवलोके,
कार्यं कियज्जल धरै र्जल भार नमै्र: ॥19॥

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ॥20॥

मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥21॥

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥22॥

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात् ।
त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्यह शिव: शिवपदस्य मुनीन्द् पन्था: ॥23॥

त्वामव्ययं विभु मचिन्त्य मसंख्य माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर मनन्त मनंग केतुम् ।
योगीश्वरं विदित योगमनेक मेकं,
ज्ञान स्वरूप ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥24॥

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन त्रय शंकरत्वात् ।
धातासि धीर शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥25॥

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्ति हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षितितलामल भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय ॥26॥

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै रशेषैस्
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषैरुपात्त विविधाश्रय जात गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥27॥

उच्चैरशोक तरु संश्रितमुन्मयूख,
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।
स्पष्टोल्लसत्किरण मस्त तमोवितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर पाश्र्ववर्ति ॥28॥

सिंहासने मणिमयूख शिखा विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम् ।
बिम्बं वियद्विलस दंशुलता वितानं
तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्ररश्मे: ॥29॥

कुन्दावदात चल चामर चारु शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत कान्तम् ।
उद्यच्छशांक शुचिनिर्झर वारिधार
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥30॥

छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त,
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम् ।
मुक्ताफल प्रकरजाल विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥

गम्भीर तार रव पूरित दिग्विभागस्
त्रैलोक्य लोक शुभ संगम भूतिदक्ष: ।
सद्धर्मराज जयघोषण घोषक: सन्,
खे दुन्दुभि ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी ॥32॥

मन्दार सुन्दरनमेरु सुपारिजात,
सन्तानकादि कुसुमोत्कर वृष्टिरुद्घा ।
गन्धोद बिन्दु शुभमन्द मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा ॥33॥

शुम्भत् प्रभावलय भूरिविभा विभोस्ते,
लोक त्रये द्युतिमतां द्युति माक्षिपन्ती ।
प्रोद्यद्दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम् ॥34॥

स्वर्गापवर्ग गममार्ग विमार्गणेष्ट,
सद्धर्म तत्त्व कथनैक पटुस्त्रिलोक्याह।
दिव्यध्वनि र्भवति ते विशदार्थ सर्व
भाषा स्वभाव परिणाम गुणै: प्रयोज्य: ॥35॥

उन्निद्र हेम नव पंकजपुंज कान्ती,
पर्युल्लसन्नख मयूख शिखाभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति ॥36॥

।।अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी मंत्र।।
इत्थं यथा तव विभूति रभूज्जिनेन्द्र्र !
धर्मो पदेशन विधौ न तथा परस्य।
यादृक्प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥37॥

हस्ती भय निवारण मंत्र
श्च्यो तन्मदाविल विलोल कपोल मूल,
मत्तभ्रमद् भ्रमर नाद विवृद्ध कोपम्।
ऐरावताभमिभ मुद्धत मापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥38॥

सिंह भय विदूरण मंत्र
भिन्नेभ कुम्भगल दुज्ज्वल शोणिताक्त,
मुक्ताफल प्रकरभूषित भूमिभाग:।
बद्धक्रम: क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम युगाचल संश्रितं ते ॥39॥

अग्नि भय शमन मंत्र
कल्पान्त काल पवनोद्धत वह्निकल्पं,
दावानलं ज्वलित मुज्ज्वल मुत्स्फुलिंगम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख मापतन्तं,
त्वन्नाम कीर्तन जलं शमयत्यशेषम् ॥40॥

सर्प भय निवारण मंत्र
रक्तेक्षणं समद कोकिल कण्ठ नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन मुत्फण मापतन्तम्।
आक्रामति क्रमयुगेण निरस्त शंकस्त्वन्नाम
नाग दमनी हृदि यस्य पुंस: ॥41॥

रणरंगे शत्रु पराजय मंत्र
वल्गत्तुरंग गज गर्जित भीमनाद
माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम्।
उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति: ॥42॥

रणरंग विजय मंत्र
कुन्ताग्र भिन्नगज शोणित वारिवाह,
वेगावतार तरणातुर योध भीमे।
युद्धे जयं विजित दुर्जयजेय पक्षास्
त्वत्पाद पंकज वनाश्रयिणो लभन्ते: ॥43॥

समुद्र उल्लंघन मंत्र
अम्भोनिधौ क्षुभित भीषण नक्र चक्र
पाठीन पीठ भय दोल्वण वाडवाग्नौ।
रंगत्तरंग शिखर स्थितयान पात्रास्
त्रासंविहाय भवत: स्मरणाद् व्रजन्ति: ॥44॥

रोग उन्मूलन मंत्र
उद्भूतभीषण जलोदरभार भुग्ना:,
शोच्यां दशा मुपगताश्च्युत जीविताशा:।
त्वत्पाद-पंकजरजो मृतदिग्ध देहा:,
मत्र्या भवन्ति मकरध्वज तुल्यरूपा: ॥45॥

बन्धन मुक्ति मंत्र
आपादकण्ठमुरु शृंखल वेष्टितांगा,
गाढं बृहन् निगड कोटि निघृष्टजंघा:।
त्वन्नाम मन्त्र मनिशं मनुजाह स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत बन्ध भया भवन्ति: ॥46॥

सकल भय विनाशन मंत्र
मत्त द्विपेन्द्र मृगराज दवानलाहि
संग्राम वारिधि महोदर बन्ध नोत्थम्।
तस्याशु नाश मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते: ॥47॥

जिन स्तुति फल मंत्र
स्तोत्र स्रजं तव जिनेन्द्र गुणै र्निबद्धाम ।
भक्त्या मया विविध वर्ण विचित्र पुष्पाम्।
धत्ते जनो य इह कण्ठ गता मजस्रं,
तं मानतुंग मवशा समुपैति लक्ष्मी: ॥48॥

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भक्तामर स्तोत्र के लाभ(Benifits of Bhaktamar Stotra):

भक्तामर स्तोत्र के कई लाभ हैं:

1.मानसिक शांति: इस स्तोत्र को सुनने या पढ़ने से मानसिक चिंताओं से मुक्ति मिलती है और मन की शांति प्राप्त होती है।

2.आत्मिक उन्नति: यह स्तोत्र आत्मिक उन्नति के लिए अत्यंत प्रभावी है, जो आत्मा को परमात्मा के प्रति आत्मसमर्पण में ले जाता है।

3.संबल: भक्तामर स्तोत्र का पाठ करने से श्रद्धालु को आत्मविश्वास बढ़ता है और उसे संबल मिलता है कि वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है।

4.रोगनिवारण: कुछ लोग मानते हैं कि भक्तामर स्तोत्र का पाठ करने से रोगों का निवारण होता है और उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने में सहायता मिलती है।

5.कल्याणकारी ऊर्जा: इस स्तोत्र में उन्नत और कल्याणकारी ऊर्जा होती है, जो श्रद्धालु को प्रेरित करती है और उसे उत्साहित करती है कि वह अच्छे कर्म करे और समाज के लिए योगदान करे।

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